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कहानी अधूरी सी

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16 January 2019

एडजस्ट करना कोई बिहारियों से सीखे,
हम गले तक खा कर भी ऊपर से दही और चीनी एडजस्ट करना बखूबी जानते हैं। खैनी के साथ चूना ना हो तो दीवार की पपड़ी के साथ एडजस्टमेंट, बस में सीट ना हो तो उसके छत पर एडजस्टमेंट, गर्लफ्रैंड के बाद उसकी सहेली के साथ एडजस्टमेंट।
यदि मैं कहूँ कि एडजस्ट करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
विपरीत परिस्थितियों में भी हम वैसे ही एडजस्ट करते हैं, जैसे बाबा रामदेव सलवार में, लालू तिहाड़ में और मोदीजी सरकार में।
पूरे एडजस्टेबल किस्म की प्रजाति बस बिहार में ही पाई जाती है।
पटना के विद्यार्थी पीड़ित क्षेत्रों में घूमिये, कैसे मकान मालिक के सौ गालियों के बीच लड़के प्लाईवुड वाले खोपचे में एडजस्ट करते हैं।
दरसल एडजस्ट करना हमारी ऐतिहासिक कला रही है।
यदि इस एडजस्टमेंट को जुगाड़ नाम दिया जाए तो क्या बुरा है?
ये जुगाड़ एक ऐसा उपाय होता है जिसे बिहारी हर जगह अप्लाई करते हैं।
वेस्टर्न पाखाने में देशी स्टाइल में बैठने का जुगाड़, राजदूत के इंजन में ठेला जोड़ने का जुगाड़, प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने के लिए सेटिंग-गेटिंग का जुगाड़, शराब बंदी के बाद चुपके से दारू का जुगाड़।
हद तो तब हुई जब सरकार बनाने को नीतीश लालू के साथ जुगाड़ लगा बैठे।
इन जुगाड़ों की वैलिडिटी उतनी ही होती है जितनी बिहार में महागठबंधन की, चायनीज मोबाइलों की, फेसबुक से बनी गर्लफ्रैंड की और पाउडर खा कर बनाए गए सिक्स पैक्स एब्स की।
मनसे और शिवसैनिक बिहारियों को बस इसीलिए मारते हैं क्योंकि वो बिहारियों के जुगाड़ टेक्नोलॉजी से जलते हैं। शायद इन्हीं जुगाड़ों के बदौलत हम 16 फीसदी ग्रोथ रेट रखते हैं।
लव यू बिहार
आइये "कुछ दिन गुजारिये बिहार में-मर जाओगे दिमाग लगा कर जुगाड़ में।

 -प्रियजीत✍

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