पुरानी परंपराएं हालांकि अब पुरानी पड़ती जा रही है। लेकिन मिथिला के बाशिंदे अब भी पुरानी परंपराओं को निभा रहे हैं.जुड़-शीतल पर्व के साथ मिथिला में नया साल शुरू हुआ है. प्रकृति का संयोग है कि मैथिली के नये साल की शुरूआत तपती गरमी से शुरू होती है तो बड़े-बुजुर्ग छोटों के सिर पर सुबह सवेरे पानी देकर जुड़-शीतल पर्व से इस नये साल के आगमन का स्वागत करते हैं ताकि यह शीतलता सदा बरकरार रहे । घर की बुजुर्ग महिलाएं इस दिन अपने परिवार समेत पास-पड़ोस के बच्चों का बासी जल से माथा थपथपा कर सालों भर शीतलता के साथ जीवन जीने की आशीर्वाद देती है।
हरेक साल की भांति इस साल भी प्रथम बैशाख को मैथिली नूतन वर्ष के अवसर पर मनाये जाने वाली पर्व जुड़-शीतल सम्पूर्ण मिथिलांचल सहित नेपाल के मिथिलांचल में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया। आज के दिन मिथिलांचल वासियों के घरों में चूल्हा नहीं जलाने की भी परम्परा रही और इस मौके पर प्रकृति से जुड़ते हुए सत्तू और आम के टिकोला की चटनी को खाया जाता है। इस वजह से इस पर्व को कोई सतुआनी तो कोई बसिया पर्व भी कहते हैं। वैसे आज दिन और रात को खाने की सभी व्यंजन एक दिन पूर्व की रात्रि में ही अक्सर बना लिया जाता है।
जुड़-शीतल पर्व की महत्ता कोशी , सीमांचल सहित मिथिलांचल क्षेत्र में अधिक होती है। इस दिन महिला, पुरुष और बच्चे सभी आम दिनचर्य से हटकर पेय जल के सभी भंडारण स्थलों जैसे कुआं, तालाब, आहार, मटका की साफ़-सफाई सहित बाट की भी सफाई करना नहीं भूलते हैं। बाट यानी सड़क पर जल का पटवन कर आम राहगीरों के लिए भी शीतलता की कामना करते है। इस पर्व का चर्चा इसलिए भी जरुरी है की लोग प्रकृति और पडोसी की चिंता से मुक्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में यह पर्व काफी महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके मिथिलांचल में भी इस पर्व में भारी गिरावट आई है। न केवल लोगों ने इस पर्व को मनाना भूल गया है बल्कि मनाने वाली महिलाओं को भी सत्कार करना भूल गए हैं। खैर, आज एक तरफ मैथिली नववर्ष है तो अभिवंचिति की लड़ाई लड़ने वाले और तिब्बत की जंग जीतने वाले राजा शैलेश की भी जयंती है। नेपाल के सिरहा बगीचा में राजा शैलेश का गहवर आज भी दर्शनीय है और खास कर अभिवंचित समुदाय उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। इस चर्चा के साथ ही मैथिली नववर्ष के मौके पर आप सभी को पर्व की याद, प्रकृति से जुड़ाव और मिथिलांचल की गरिमापूर्ण संस्कृति को बनाये रखने की आशा के साथ मंगलकामना…!
मिथिला के नववर्ष मंगल
सबहक ऑगन गमकल,
कादो कीचड़ सँ मलल,
सत्तु सँ सनल ,
बड़ी भात सँ मनल,
गाछी मोजड़ल आम स लदल,
टिकुला टूक टूक तकल,
टूटि चटनी लेल बेकल,
सबहक ऑगन जुड़शीतल ।
ककरो पकड़ल,
ककरो जकड़ल,
ककरो पटकल,
ककरो देखि सब लोक हँसल
ककरो चिन्हे नैं आबैय शक्ल ,
मचल हुरदंग धुर खेल,
थैयर थैयर जुड़शीतल भेल ।
अपनाहूँ जुड़ूँ दोसरो के जुड़ाऊ,
सबके माटिक मूरत बनाऊँ,
भौजी के पोखर तक पहुँचाऊँ ,
थाल खीच सँ तरबत्तर लेल,
सबहक जमघट लागि गेल,
मस्त मंलग जुड़शीतल भेल ।
नव गेहूम बूट के संग फेटल
खरियान मे सब अन्न पसरल,
सबहक मोन आनन्द स कसल ,
वाह वाह रे जुड़शीतल ।
गृहस्थ के जीवन मे अनलक नव रंग,
हर्षित मोन घर गमागम ,
नव उमंग के संग मनल जुड़शीतल ।
जीवित या मृत सबहक काया तृप्त ,
भाग्य खेतिहर के भेल उदित ,
शीतल जल से सब सिक्त,
जेबों ककरो नैं आब रिक्त ।
जुड़शीतल के महिमा न्यारी,
भाई भौजाई करू खेलैय के तैयारी,
बड़ी भात के बनू नोतहारी,
बिन आमक नैं कोनो तीमन तरकारी ,
राति के भोजन दालपूड़ी सम्हारि
छुट्टी छैक ओही दिन सरकारी,
भरि गेल फेर बखारी ।
बाबा बाबी नाना नानी
माय बाप संग जुड़ाबैथि काकी,
कोनो आशीर्वाद नै ओहि दिन बॉकि
कादो सनल ओहि दिन ताकि
कतबो प्रयत्न बचैय के राखि,
मोन भेल गदगद ढ़ाकि के ढ़ाकि ।
सत्तु सतुयानि के संग
बड़ी भात के अद्भुत पार्टी,
लोक सजल जेना भोले कँ बराती,
देह सनल गामक माटि ।
आमक चटनी अनमोल खुराकी ,
भोरे उठि भागी कलम गाछी ,
सब गाछ के बसिया भात खुआबि ,
बड़ी के सेहो भोग लगाबि,
पुरखा के तुलसी जल चढाबि ।
एक दोसर के पाछू भागैईत भैय्यारी ,
पोखेरि उमकी डबरा कारी
कादो मे गोती कोना सुतारि,
वाह वाह रे जुड़शीतल के यारी ।
माटिक मसाज, लपेटल उबटन,
बाऊ बटुक सब करैथि मंथन,
रोम रोम हर्षित सब तन ,
बैसाख लगैयत अछि आइ सावन।
तुलसी चौड़ा दूटल बांस सहाय,
भरल घैल ओहि पर लटकाय
पेनि के छेद से कुश लगाय ,
ठोपे-ठोप जल तुलसी जी जुडा़य,
ऑगना सब गाबैय सोहराय,
वाह वाह रे फेर जुड़शीतल आइ ।
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हरेक साल की भांति इस साल भी प्रथम बैशाख को मैथिली नूतन वर्ष के अवसर पर मनाये जाने वाली पर्व जुड़-शीतल सम्पूर्ण मिथिलांचल सहित नेपाल के मिथिलांचल में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया। आज के दिन मिथिलांचल वासियों के घरों में चूल्हा नहीं जलाने की भी परम्परा रही और इस मौके पर प्रकृति से जुड़ते हुए सत्तू और आम के टिकोला की चटनी को खाया जाता है। इस वजह से इस पर्व को कोई सतुआनी तो कोई बसिया पर्व भी कहते हैं। वैसे आज दिन और रात को खाने की सभी व्यंजन एक दिन पूर्व की रात्रि में ही अक्सर बना लिया जाता है।
जुड़-शीतल पर्व की महत्ता कोशी , सीमांचल सहित मिथिलांचल क्षेत्र में अधिक होती है। इस दिन महिला, पुरुष और बच्चे सभी आम दिनचर्य से हटकर पेय जल के सभी भंडारण स्थलों जैसे कुआं, तालाब, आहार, मटका की साफ़-सफाई सहित बाट की भी सफाई करना नहीं भूलते हैं। बाट यानी सड़क पर जल का पटवन कर आम राहगीरों के लिए भी शीतलता की कामना करते है। इस पर्व का चर्चा इसलिए भी जरुरी है की लोग प्रकृति और पडोसी की चिंता से मुक्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में यह पर्व काफी महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके मिथिलांचल में भी इस पर्व में भारी गिरावट आई है। न केवल लोगों ने इस पर्व को मनाना भूल गया है बल्कि मनाने वाली महिलाओं को भी सत्कार करना भूल गए हैं। खैर, आज एक तरफ मैथिली नववर्ष है तो अभिवंचिति की लड़ाई लड़ने वाले और तिब्बत की जंग जीतने वाले राजा शैलेश की भी जयंती है। नेपाल के सिरहा बगीचा में राजा शैलेश का गहवर आज भी दर्शनीय है और खास कर अभिवंचित समुदाय उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। इस चर्चा के साथ ही मैथिली नववर्ष के मौके पर आप सभी को पर्व की याद, प्रकृति से जुड़ाव और मिथिलांचल की गरिमापूर्ण संस्कृति को बनाये रखने की आशा के साथ मंगलकामना…!
मिथिला के नववर्ष मंगल
सबहक ऑगन गमकल,
कादो कीचड़ सँ मलल,
सत्तु सँ सनल ,
बड़ी भात सँ मनल,
गाछी मोजड़ल आम स लदल,
टिकुला टूक टूक तकल,
टूटि चटनी लेल बेकल,
सबहक ऑगन जुड़शीतल ।
ककरो पकड़ल,
ककरो जकड़ल,
ककरो पटकल,
ककरो देखि सब लोक हँसल
ककरो चिन्हे नैं आबैय शक्ल ,
मचल हुरदंग धुर खेल,
थैयर थैयर जुड़शीतल भेल ।
अपनाहूँ जुड़ूँ दोसरो के जुड़ाऊ,
सबके माटिक मूरत बनाऊँ,
भौजी के पोखर तक पहुँचाऊँ ,
थाल खीच सँ तरबत्तर लेल,
सबहक जमघट लागि गेल,
मस्त मंलग जुड़शीतल भेल ।
नव गेहूम बूट के संग फेटल
खरियान मे सब अन्न पसरल,
सबहक मोन आनन्द स कसल ,
वाह वाह रे जुड़शीतल ।
गृहस्थ के जीवन मे अनलक नव रंग,
हर्षित मोन घर गमागम ,
नव उमंग के संग मनल जुड़शीतल ।
जीवित या मृत सबहक काया तृप्त ,
भाग्य खेतिहर के भेल उदित ,
शीतल जल से सब सिक्त,
जेबों ककरो नैं आब रिक्त ।
जुड़शीतल के महिमा न्यारी,
भाई भौजाई करू खेलैय के तैयारी,
बड़ी भात के बनू नोतहारी,
बिन आमक नैं कोनो तीमन तरकारी ,
राति के भोजन दालपूड़ी सम्हारि
छुट्टी छैक ओही दिन सरकारी,
भरि गेल फेर बखारी ।
बाबा बाबी नाना नानी
माय बाप संग जुड़ाबैथि काकी,
कोनो आशीर्वाद नै ओहि दिन बॉकि
कादो सनल ओहि दिन ताकि
कतबो प्रयत्न बचैय के राखि,
मोन भेल गदगद ढ़ाकि के ढ़ाकि ।
सत्तु सतुयानि के संग
बड़ी भात के अद्भुत पार्टी,
लोक सजल जेना भोले कँ बराती,
देह सनल गामक माटि ।
आमक चटनी अनमोल खुराकी ,
भोरे उठि भागी कलम गाछी ,
सब गाछ के बसिया भात खुआबि ,
बड़ी के सेहो भोग लगाबि,
पुरखा के तुलसी जल चढाबि ।
एक दोसर के पाछू भागैईत भैय्यारी ,
पोखेरि उमकी डबरा कारी
कादो मे गोती कोना सुतारि,
वाह वाह रे जुड़शीतल के यारी ।
माटिक मसाज, लपेटल उबटन,
बाऊ बटुक सब करैथि मंथन,
रोम रोम हर्षित सब तन ,
बैसाख लगैयत अछि आइ सावन।
तुलसी चौड़ा दूटल बांस सहाय,
भरल घैल ओहि पर लटकाय
पेनि के छेद से कुश लगाय ,
ठोपे-ठोप जल तुलसी जी जुडा़य,
ऑगना सब गाबैय सोहराय,
वाह वाह रे फेर जुड़शीतल आइ ।
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