इच्छाएँ उसकी समझौतों में बदल जाते हैं..
बेपरवाह बचपन समझदारी की बोझ में दब जाते हैं...
सपने खुद के पूरे ना हो भले..
परिवार के लिए जीना सीख जाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
उनकी ज़िद जिम्मेदारीयों में बदल जाते हैं..
गांव से शहर अनेकों सपने लिए जाते हैं..
दिनभर की भागदौड़ और रात को हँस कर अपनी कुशलता बताते हैं..
लाख परेशानी हो फिर भी,'"मैं ठीक हूँ" से बातें टाल जाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
कमाई भले चंद हज़ार की हो..
परिवार के हर शौक़ को पूरा करते हैं..
खुद एक शर्ट में महीनों बिताते हैं..
बहन के लिए नई ड्रेस लाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
बेटी रौशन करती है किसी घर को..
बेटे पूरी जिंदगी तपाए जाते हैं..
वो खुलकर रोती है विदाई में..
बेटे चुपके से रोकर तकिया भींगाते हैं..
सिर्फ बेटियाँ ही नहीं साहब..
बेटे भी दूर रहकर आंसू बहाते हैं।
काश की कोई योजना ऐसी भी हो सरकारी..
जो बेटों की जिम्मेदारी उठा सके..
दहेज़ माफी के साथ-साथ ही..
बेटों के गम भी बाँट सके..
बेपरवाह बचपन समझदारी की बोझ में दब जाते हैं...
सपने खुद के पूरे ना हो भले..
परिवार के लिए जीना सीख जाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
उनकी ज़िद जिम्मेदारीयों में बदल जाते हैं..
गांव से शहर अनेकों सपने लिए जाते हैं..
दिनभर की भागदौड़ और रात को हँस कर अपनी कुशलता बताते हैं..
लाख परेशानी हो फिर भी,'"मैं ठीक हूँ" से बातें टाल जाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
कमाई भले चंद हज़ार की हो..
परिवार के हर शौक़ को पूरा करते हैं..
खुद एक शर्ट में महीनों बिताते हैं..
बहन के लिए नई ड्रेस लाते हैं..
तब शायद बेटे बड़े हो जाते हैं।
बेटी रौशन करती है किसी घर को..
बेटे पूरी जिंदगी तपाए जाते हैं..
वो खुलकर रोती है विदाई में..
बेटे चुपके से रोकर तकिया भींगाते हैं..
सिर्फ बेटियाँ ही नहीं साहब..
बेटे भी दूर रहकर आंसू बहाते हैं।
काश की कोई योजना ऐसी भी हो सरकारी..
जो बेटों की जिम्मेदारी उठा सके..
दहेज़ माफी के साथ-साथ ही..
बेटों के गम भी बाँट सके..
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